Wednesday, September 23, 2009

बस यूँ ही


तेरी दुनिया से बहुत दूर निकल आये हैं हम,
यहाँ तो हवा भी तेरा पैगाम न पहुंचायेगी;

दुआएं समेट, ईद मना,
तो क्या हुआ जो चाँद ज़रा देर से निकला;

सेवइयां बाँट गरीब बच्चों में ज़रा,
आज तो उन्हें भी खुश हो लेने दे;

मौके आते हैं ऐसे मुद्दत्तों मिन्नत्तों के बाद,
आज तो न हाथ से जाने दे इसे;

जो आज लुट गए ये पल यूँ ही,
तो जश्न-ए-आज़ादी फिर न होगा;

चख ले ज़रा इस नूर को अब,
कि फिर न हम तेरे दर पर आयेंगे कभी;

बड़ी मुश्किल से इन क़दमों को ये मंजिल है मिला,
अब तो बस मेरे हौसले की न इम्तिहान ले तू;

हो जाने दे दो अजनबी को फिर से जुदा,
कि जिन्हें ये लगने लगा था कि वो हमराज़ हैं;

जिन बातों का अब कोई मतलब न रहा,
उन यादों को अब धुँधला जाने दे;

छोड़े जाती हूँ अपने हमनवा को मैं,
अब तो बस तू ही है खुदा उसका निगहबान;

मेरी कलम से- सिर्फ तुम्हारे लिए..

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