तेरी दुनिया से बहुत दूर निकल आये हैं हम,
यहाँ तो हवा भी तेरा पैगाम न पहुंचायेगी;
दुआएं समेट, ईद मना,
तो क्या हुआ जो चाँद ज़रा देर से निकला;
सेवइयां बाँट गरीब बच्चों में ज़रा,
आज तो उन्हें भी खुश हो लेने दे;
मौके आते हैं ऐसे मुद्दत्तों मिन्नत्तों के बाद,
आज तो न हाथ से जाने दे इसे;
जो आज लुट गए ये पल यूँ ही,
तो जश्न-ए-आज़ादी फिर न होगा;
चख ले ज़रा इस नूर को अब,
कि फिर न हम तेरे दर पर आयेंगे कभी;
बड़ी मुश्किल से इन क़दमों को ये मंजिल है मिला,
अब तो बस मेरे हौसले की न इम्तिहान ले तू;
हो जाने दे दो अजनबी को फिर से जुदा,
कि जिन्हें ये लगने लगा था कि वो हमराज़ हैं;
जिन बातों का अब कोई मतलब न रहा,
उन यादों को अब धुँधला जाने दे;
छोड़े जाती हूँ अपने हमनवा को मैं,
अब तो बस तू ही है खुदा उसका निगहबान;
मेरी कलम से- सिर्फ तुम्हारे लिए..
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